प्रेम रतन धन पायो

बचपन में दिवाली आती थी तो हम सब चिटपुटिया उड़ाते थे, डर लगता था लेकिन डर को कम करने के तरीके भी था किसी पत्थर पर छुटपुटिया को रख देते थे फिर  दूसरे से ईंट से उसको मार कर भाग जाते थे फिर फूट का आवाज निकलता और हम सब खुश हो जाते। आजकल प्यार – मोहब्बत उस चिटपुटिया की तरह हो गया है।  बहुत सुक्ष्म हो गया है ,कम अंतराल का हो गया है। आज कीजिए कल फुस हो गया। अभी बुखार बढ रहा था कि दवा ले लिए तब क्या मालूम तरप कितनी है इसमें। सोशल मीडिया के जमाने में प्यार का नशा जल्दी चढ रहा है और उतर  रहा  है। शरीर की करीबी बढ़ी है लेकिन दिल बेचारा तनहाई से डरता है।

पहले प्रेम पत्र में अदृश्य शक्ति होती थी उसे पढ़ते लिखते प्रेमी, कब  कवि बन जाता था उसे मालूम ही नहीं होता था। कुमार विश्वास ऐसे ही कवि बने हैं और अपने प्रेम पत्र को संग्रह कर लिख  दिये  “कोई   दीवाना कहता है ”  प्रेम नगरी में जो हाल रहती है वह इस शेर से बयां होती है।

“होश वालो को  खबर क्या बेखुदी क्या चीज है

इश्क कीजिए फिर समझिए जिंदगी क्या चीज है”

और आज जब देखो तब -हाय, हेलो बेबी,  हाय जान, कैसी हो । आलू के परांठे बना रही हूँ  । तो  व्हाट्सएप पर भेज दो, हां भेज दूंगी । खा लेना । और फिर आ भी गया।  गरमा गरम आलू के परांठे। आज – कल  लंच में प्रेमी मैगी चाऊमीन खा- खा कर मोटे हो रहे हैं और दोस्त कमेंट कर रहे होते हैं भाई मोटे हो रहे ,  क्या बात है । शायर कहता है कि

कुछ होश नही रहता

कुछ ध्यान नही रहता

इंसान मोहब्बत मे इंसान नहीं रहता ।

और ईधर  वीडियो कॉलिंग से सारे बाइस्कोप देखा जा रहा है जहां प्यार कम , वासना ज्यादा है। हाय -बाई  से कैसे किसी के विचारो -जज्बातों का पता चलेगा।   जो प्रेम रतन बन सकता था उसे कंकर बना औरों को भी मारा जा रहा है।

जानू के प्यार में खोया खोया पढ़ाकू बंदा ,  कब शेरो शायरी करने लगता है पता ही नहीं चलता।  जो दूसरों को शेरो शायरी की किताबें पढ़ते देखता और बोलता पढ़ ले पढ़ ले।  वह खुद इस में रंग गया है।  कबीर जी कह गए- 

प्रेम गली अति सांकरी। फिर कह गए ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। ऐसे में थोड़ा कन्फ्यूजन हो जाता है। बिहारी जी कह गए-

“कहत नटक मिलत खिलत लजियात

 भरे भुवन में करत हैं  नैनों से ही बात। “

 लेकिन आज के  कवि क्या लिखें।  आज ना लड़का कहता है ना लड़की मना करती है फिर भी फेवीकोल की तरह चिपक जाते हैं। लेकिन ना खिलते हैं ना लजाते  हैं। अब भुवन भी नहीं है   चारों तरफ पार्क ही पार्क है  और पास में मोबाइल है तो नैन से बात करने की जरूरत भी नहीं है।

– धर्मेन्द्र कुमार निराला

पालकी(हास्य व्यंग)

शादी-विवाह का  सीजन चल रहा है। मुफ्त मे  खाने वाले छोड़े नये नये ड्रेस बनाने में संलग्न है । इस ड्रेस के सहारे शादि मे  मुफ्त के पापड़ -तिलौरी उड़ाएगें और उनका सीन 3 इडियट वाला ही होगा।  दिल्ली में बहुत शादियां होती है वहां कौन वर पक्ष की ओर से और  कौन वधू पक्ष की ओर से ; कौन जानता है। यदि उनके मन में विचार आएगा तब भी  उनके पास फुर्सत कहां कि वह किसी आगंतुक से सवाल-जवाब करें।आज के आधुनिकता के ठेलम ठेल में सब नजारे देखने को मिलता है। लेकिन जमीन से जुड़ा और गाँव की संस्कृति से पालकी गायब है ।पालकी की जगह एसी कारों ने ले ली है।बाकी कुछ कदम अगर सफर बचता है तब कोई बंदा आता है और दोनों हाथों में  जकड़ कर गंतव्य स्थान पर पटक देता है दूल्हे राजा को।देखने वाली बात होती है उठाने वाला बंदा इतनी तेजी से चलता है कि दूल्हे को पता ही नहीं चलता कि कब वह स्टेज के पास पहुंच गया। उनकी स्पीड राजधानी एक्सप्रेस से भी तेज होती है। अब उसका राज्याभिषेक होने वाला है। वह बन्दा जो कई रात फांके मे गुजारी है,  प्रेम के अश्रुधारा  मे बहकर तकीया गीला कर दिया,अब उसे पुरा भूखण्ड मिलने वाला है। पालकी को शादी सभ्यता से दूर कर दिया गया है वह जहां है सुबक-सुबक कर रो रहा है।  कवि कि कविता थम गई है  । कवियों ने  पालकी और उसमें बैठी दुल्हन पर कविता बनाए हैं लेकिन  अब एसी कार और दुल्हन पर  कोई कविता नहीं बनाता। कवि को पालकी में सारा सौंदर्य नजर  आता है और उसमें बैठी दुल्हन उनकी मेहबुबा  से कम नहीं होती। उसके गुणगान में दो-तीन दिन तक वे अखड़े सो जाते हैं लेकिन आज भी  आधुनिक साज-समान और बनावटी फूलों से लदी कारों की खूबसूरती  उस पालकी से कम ही है फिर भी इन कारों की इतनी अपमान। मेरे मन में भी विचार आया था कि पालकी पर बैठु। लेकीन मुंगेरी लाल के सपनो कि तरह  मै पालकी का सपना देखता रह गया। अभी भी सपने मे कभी-कभी पालकी देख लेता हूँ। हमारे जानने वाले पंडित जी बताएं की यह भविष्य का शुभ संकेत है।  वैसे शादी में आवारा लड़कों की बल्ले-बल्ले है।उनकी तो बांछे खीली हुई  रहती है ।उनके पास काम की कमी नहीं है। वे  कभी हलवाई के असीसटेन्ट  बन जाते हैं तो कभी वेटर; नही तो  कभी समायना और रंगमहल के कर्ताधर्ता।  फिर कुछ काम कर मुफ्त की रोटी तोरते  हैं। सबसे अधिक लौंडे कैमरामैन बनना पसंद करते हैं वह तो अपने आप को फराह खान से कम नही समझते। वह तो बाद में पता चलता है कि इसमें कहीं दूल्हा पैंट कोट पहनते अधिक नजर  आता है और कैमरामैन मारो में सोते हुए रहा है। उसका कैमरा छतो पर 360 डिग्री का कोण ज्यादा बनाता है। पालकी कि सवारी पुष्पक विमान से कम नही है। अगर कंहारो को भी रोजगार मिले तो उनकी भी रोजी रोटी चले।जब दूल्हा-दुल्हन पालकी में बैठकर अपने घर को हिचकोले लेते चलेंगे तो उन्हें ऐसा लगेगा जैसे वे आकाश में सफ़र कर रहे हैं।उनके पास सुकून होगा। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को निहारते ,  नदी नालों को फानते, जंगलों , बाग – बगीचे , खेत -खलिहानो, चरवाहों ,पशु-पक्षीयों के बीच  से होले -होले गुजरेंगे तो परम आनंद की अनुभूति होगी और जब  डोली गांव से गुजरेगी तब उस समय के  वे हीरो होंगे ।हर तरफ उन्हें देखने के लिए लोग छतो और सड़कों किनारे खड़े होंगे। और वे उस समय  किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं होंगे

धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

रोना भी एक कला है(हास्य व्यंग)

कला कोई भी हो वह आपकी आत्मा का अनुभुती कराती  है और कला निस्वार्थ और निष्काम भावना से जुरी हो तो आत्म संतुष्टि देती है।इधर रोने को भी कल मान लिया गया है वैसे टपरे के नीचे रहने वाले भी रोते हैं लेकिन उनके आंसू ऊपर से टपक रहे पानी में घुल जाती है वे बेचारे सरकारी बाबुओं को उलाहना देते रहते हैं कि हमारी कोई नहीं सुनता।आंधी हो या पानी ; वह टपरे के नीचे अलाव जलाता है और लिट्टी चोखा बनाता है ।उसकी आंखो का पानी नहीं सुखता है कि कोई कुपोषण से तो कोई  कर्ज से मर जाता है।उसका ह्रदय चित्तकार कर रोता है।लेकिन वह जल्दी भूल जाता है।  वह जानता है यही उसकी नियति है ।ऐसा करूण रोदन का  नकल  कोई नहीं कर सकता है । ईधर कई दिन से नेता जी विधायक की सीट के लिए जुगाड़ लगा रहे हैं लेकिन कोई सुन नहीं रहा है।
तब एक लंगोटिया यार ने भले ही उसका लंगोट से कोई वास्ता नहीं हो, सुझाव दिया कि पड़ोस में रहने वाले साइकोलॉजीस्ट से काहे नहीं संपर्क कर लेते ।साइकोलॉजिस्ट में नए-नए रोने के तरीका बताया। सभी के लिए अलग-अलग चार्ज था ।लेकिन नेताजी को रोना नही आया ।बिना रोए टिकट कैसे मिले। नेताजी क्षेत्र के  बाहुबली थे । गोया उनके पूर्वज कभी रोए नहीं।  अब उनको रोना पड़ेगा। लेकिन अंत में यह तय हुआ कि डॉ मुकुंदी लाल नेताजी के तरफ से पैरवी करेंगे उन्हें नेताजी का पीए बना दिया जाए।पर   डॉक्टर मुकुंदी लाल पहले ही रोने लगे। बात कि वे भी कई दफा कई पार्टियों के चक्कर लगा आए थे फिर उनमे रोते- रोते अद्भुत प्रतिभा आ गई थी। और उनका पूरा विश्वास था कि जो नेताजी के मूड को भांप जाए उसे मनोविज्ञान का डिग्री दे देना चाहिए ।उनसे गिरगिट भी प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता ।अब नेताजी रोने का कला कैसे सीखें। फिर सहपाठियों ने सुझाव दिया कि नेताजी स्टेशन चले जाए और भिखारीयों से आसानी से रोना सीख जाएंगे।उनकी अजीब आवाज होती है -अल्लाह के नाम पर दे- दे, अल्लाह के नाम पर दे दे ।लेकिन इस आवाज में सेकुलरिज्म नहीं है ।सो नेता जी उनका नकल नहीं उतारेंगे। फिर सोचा गया राम के नाम पर वोट मांगने में क्या बुराई है। लेकिन एक समस्या है नेताजी के चेहरे पर वह फीलिंग नहीं आ रही है। शब्द भी दिल में घाव नहीं कर रहे हैं जैसे भिखारींयो के  शब्द करते हैं। फिर तय हुआ नेताजी को मुंबई भेजा जाए। विभिन्न प्रकार के रोल में पारंगत किया जाए ।रावण की तरह अट्टास कर हंसने की प्रैक्टिस होना चाहिए। जीतने के बाद हंसने पर जब मोहल्ले वाले नहीं जाने तो मतलब जीत की खुशी नहीं है। वैसे मुंबई में बहुत बड़ी नौटंकी हुई। रातों रात सरकार बन गई। शपथ दिलवा दिया गया और उपमुख्यमंत्री महोदय अपने ऊपर लगे सभी आरोपों को सफाचट कर फिर पूर्व पार्टी में आ गए । जैसे भारतीय सेना रातों-रात पाकिस्तान के आतंकी शिविर का सफाया कर अपने घर आ गई। देश में दोनों बार बहुत हलचल हुआ ।कई रिकॉर्ड बने। इन सभी घटनाओं से नेता जी जरूर सीखेंगे। घपेलू चेलो को यह आशा है और वे भी चाहते हैं कि हमारे नेता जी बाहुबली होने के अलावा सरकारी पैसों की गमन में भी पारंगत हो जाए ताकि उनके छोड़ने के बाद बचे-खुचे को खाकर  वे फलते फुलते रहें। चीतचोर लव गुरु बताते हैं। रोने के बाद दिल हल्का हो जाता है ।इसलिए फूट फूट कर रोना चाहिए ।ऐसे मामले  मे रोने का कोई साइड इफेक्ट नहीं है। बल्कि  इंटरवल के बाद मूड रोमांटिक हो जाता है ।मन में यादों का लड्डू फूटने लगता है। रोना हर जगह जरूरी है। आजकल जब तक आप  सरकारी बाबू के ऑफिस में दो-चार बार रोएंगे नहीं फाइल सरकेगा  नहीं । वह भी दो चार बार चेहरा देखकर परखेगा  कि कहीं आप घरियाली आंसू  तो नहीं बहा रहें हैं ।अगर ऐसा हुआ तो वह अपने सहकर्मियों के बीच हंसी का पात्र बन जाएगा , खुद बेवकूफ बनने के लिए। हरिशंकर परसाई जी बताए गए कि एक बार उड़ती दरख्वास्त को  बचाने के लिए नारद जी को  घुस के एवज मे उनको अपनी वीणा रखनी पड़ी थी लेकिन यह बीती बात हुई। वजन रखने के अलावा रोना भी जरूरी है। कारण कई लोग अपने अपने कामों के लिए वजन रख दिया है फिर मुंशी काम पहले किसका करे ।वह कॉनफियुज्ड हो जाता है ।सभी पर बराबर वजन है इसलिए सभी का चेहरा एक जैसा लगता है। लेकिन जो रोता है; उसी का चेहरा याद आता है तभी उसका काम पहले होता है । आजकल सबसे ज्यादा रोना पति प्रेमियों की हो रही है । नाईट शिफ्ट के  लिए नहीं  बल्कि मोबाइल लुगाई नहीं दे रही इसलिए। और उधर मुंह बोले दोस्त  व्हाट्सएप पर  लगातार  चिला रहे हैं ; कहां गया बे , कहीं मर गया। आ रहे  धुआंधार नोटिफिकेशन के आवाज ,उसके शुभचिंतक दोस्तों की उपस्थिति बता रही है लेकिन बीवी का कहना है पूरे दिन मोबाइल देखते रहते हैं हमें देखते ही नहीं। मैं तरस गई हूँ कि हमारे सोलह सिंगार को हमारे प्राण प्रिय  निहारें। लेकिन इन्हें तो मोबाइल सौतन से फुर्सत ही नहीं। वह जमाना लद गया जब दुल्हनियां सोलह सिंगार कर शाम को घर बैठे रहते थी तब पतिदेव शाम को काम से घर लौटने पर उनके चंद्रमुखी सा चेहरा देख खिल जाते थे और उनका सारा थकान इंद्रजीत के   नाग पास कि तरह हर लेती थीं। लेकिन आजकल पति महोदय गर्दन नीचे  झुकाए  मोबाइल पर नजर टिकाए गृह प्रवेश करते हैं और गर्दन उठाए  परदेसी गमन।

धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

परदे मे रहने दो(हास्य व्यंग)

परदे मे रहने दो ,परदे न उठाओ ,,,,, वाह कितना मधुर संगीत है। दिल बाग बाग हो गया।
वैसे कवी प्रेमिका के मनोभाव को कहना चाहता है कि पर्दा उसकी इज्जत है ।आबरू है ।और वह उसका ख्याल करे। आज का गीत फायर ब्रिगेड मंगवा दे तू जोरों पर है अरमा, ओ  बलमा ओ बलमा।अब ऐसे गानों को बीच बाजार में गाने लगे तो क्या पता परम विश्वासी लंगोटिया यार 101 पर कॉल कर दे और बाद में पता चले  कि किसी कपड़े  की दुकान में आग नहीं लगी थी ।यह तो पूरे बदन में लगी थी। सो उसे बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड भी हाथ खड़ी कर दे। पहले गीत आया, तू मेरी जिंदगी है ,तू मेरी हर खुशी है, तू ही प्यार तू ही चाहत, तू ही आशिकी है।यहां प्रेमी ,प्रेमिका के प्यार मे  एकाकार होकर उसी में सब कुछ देखता है ।जैसे भक्त भगवान में।

फिर आया जानम समझा करो ,जानम समझा करो अब गीत आया है कोका कोला तूअअ, कोका कोला तूअअ ।पहले प्रेमी लड़की को अपनी जिंदगी समझता था ।बाद में समझाने लगा, जब समझ में आया तब उसे कोका कोला समझने लगा ।उसे किसी दिन की जाएगा तब उसे खाली बोतल तूअअ कहेगा। वैसे खाली बोतल सटीक है क्योंकि  बोतल में सोमरस है तब तक एक रंग  है । जब खत्म हो जाए तो जीवन दुश्वार है।प्रेम है तब तक सब कुछ, हर पल हर क्षण खुशगवार है और जिसके बिना जिंदगी अधूरी लगे वह खाली बोतल ही है।सुनने में ये भी आ रहा है आज कल के बंदो को प्रांतों के गीत पसंद नहीं आ रहे हैं ।भोजपुरी के तो और नहीं। कारण की अब ये इंग्लिश गीतों से कम संस्कारी लग रहा है। अब वो अपने पर्सनैलिटी को डेवलप करना चाहते हैं ,संस्कार को नहीं जो अंग्रेजी के बगैर संभव नहीं है।  सभी अंग्रेजी सिखाने वाली संस्था तो यही दावा करती है कि अंग्रेजी के बिना पर्सनैलिटी डेवलप नही होगा सो अंग्रेजी साॅन्ग सुनना जरूरी है।    वाका-वाका  सॉन्ग ओका -बोका के लिरिक्स से मिलता है।जिसमें उन्हें बचपन की नेचुरलिटी फील होती है। पहले प्रेयषी शालीन होती थी, प्रेमी सीधा-साधा;दोनो रूप माधुर्य मे खो जाते और गीत गाते- जादू है नशा है मदहोशियां है तुझको भुला कर मैं जाऊं कहां, देखती है तेरी नजरें इस तरह से खुद को छुपाउ कहाँ।

अब तो जोर जबरदस्ती वाली बात है। वे जबरदस्ती फोटो खिंचवाती हैं- खींच तू फोटो ,खींच तू फोटो। पहले घुंघट में लड़की का शर्माना अच्छा लगता था वह मनोहर दृश्य  दिल में बस जाता था अब किसी को घुंघट  पसंद नहीं है ।पहले के गीतों में कोयल बोलती थी , तो  कबुतर गुटर  गू करता था।

मोरनी बागा में नाचती थी । प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का वर्णन होता था अब तो चिलम जलइबे ,बीड़ी सुलगइबे वाली बात हो रही है ।पहले के महबूब रास्ते से भटक जाते थे तब गीत गाते हुए चलते -तेरे चेहरे में वो जादू है बिन डोर खिंचा चला आता हूं ,जाता हूं कहीं और और कहीं और चला जाता हूं।फिर अंत में अन्यय प्रेम का जादू ही उन्हें खींच कर लाता था। लेकिन आज के महबूब को पहले से डेस्टिनेशन गूगल मैप में लोड है वह भटकता नहीं है सही समय पर एंट्री करता है और गाना गाकर निकलता है-अगर तुम मिल जाओ जमाना छोड़ देंगे हम ।लेकिन भूल जाता है बुड़बक। जहाँ जाएगा जमाना रहेगा। वह आदिमानव तो है नहीं जो गुफा में रहेगा।वैसे आदिमानव गीत गाते थे नहीं। यह डिजिटल मानव है। आठ बजे जगता है और उसके  अलार्म में हनी सिंह का गाना बजता है चार बोतल वोटका।

धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

कोविडियट(हास्य व्यंग)

समय सभी का आता है सभी का जाता है। इंसान का समय आता है तो कॉकटेल पीता है तो उसे  ‘क्वारेटीन’ कह दिया जाता है । जब दुख आता है तो रोता है लेकिन शब्द कैसे रोए , किस बीयर बार में अपने दुख का शोक मनाए। आजकल दुख का शोक मनाने का नया ट्रेण्ड चल रहा है। बुड्ढा मरा तो शमशान में सोमरस का आनंद लिया जा रहा है। चलो इस बुड्ढे  से छुट्टी हुई ।बहुत धन छोड़ गया। यह मानसिकता बदलनी चाहिए। उधर कई महीने से हाई-फाई को क्वांरेटाइन  कर दिया गया है। इसकी जगह एल्बो-बम्प ने ले ली है।  अब हाई-फाई किससे अपना दुखरा रोए।उसे डर है लोग कहीं उसे  कोविडियट ना  कहने लगे । न-न  ऐसा वो काम नहीं करेगा ।वह हाई-फाई है, हाई-फाई रहेगा । संसार को कोविड-19 से बचाएगा। हाई-फाई , वाईफाई नहीं बनना चाहता है ।  जिससे सभी गठबंधन कर लें। वह सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करेगा।  कवरेज एरिया से बाहर रहेगा – हाई-फाई ।वैसे हाई-फाई लोग हमेशा लोगों से घिरे रहते हैं।

लेकिन वे वाईफाई नहीं बनते । बनते भी हैं तो पल भर के लिए ।कॉमेडी नाइट विद कपिल शो में  हाई-फाई ,पल भर के लिए गोद में उठा लेता है , थोड़ी डांस कर लेता हैं । फिर कहा जाता है जा लेमिनेशन करा लेना। इससे जिंदगी भर खुश्बु आएगी।   लाइव स्टेज के सामने कोई बंदा आता तो उसे हुरदंगी  बोल देतें हैं या उत्पाती ।जी नहीं माने तो खुराफाती भी बोलते हैं। इससे भी बन्दा नही माने तो लात-घुसा से भूत उतार देते हैं। लेकिन अब  वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान बाधा डालने वालों खुरापाती को जूम- बाॅम्बिंग बोलते हैं।अगर उसे ठीक से समझ आया तो ठीक , नहीं तो वह खुद को बॉडीबिल्डर समझ लेगा। उसे गर्व होगा अपने बॉडी पर।लेकिन ऐसे इडियट,  3 इडियट की तरह होते है। इन से हर कोई परेशान रहता है। ये बीमार होते भी नहीं कि लोगो के जान में जान आए। इनके लिए कोई नियम कानून नहीं होता है। ये खुद ही घोषणा कर देते हैं- हम नहीं सुधरेंगे ।और तो और अपने टी-शर्ट पर लिखवा कर घूमते है- हम नही सुधरेंगें। ये नियम- कानून का सरेआम उल्लंघन करते हैं।ये सही मे कहना चाहते हैं-आ बैल मुझे मार। लेकिन बैल है कि उसका पुँछ नही है।इसलिए कोई इसे पुँछीयाता नही है।बीच-बीच मे पुँछीयाने से बैल सही दिशा मे गमन करता है। अब यही इडियट ,कोविडियट हो गएँ हैं।

अब इन पर फिल्म भी बन सकती है- थ्री कोविडियट।  अब देखना है, बॉलीवुड में कौन कोविडिएट बनना चाहता है।  अगर आप ऐसी खबर तलाशते हैं जिससे आपकी डिप्रेशन बढ़ जाए तो ऐसे कृत्य को डूमस्क्रोलिंग कहा जा रहा है। धन्य हो अंग्रेजी साहित्य कि जो अपने इंग्लिश शब्दों को बढ़ा रहा है।  अंग्रेजी साहित्य नए – नए शब्द गढ रहा है:- हाइड्रोक्सीक्लोरो क्वीन, डेक्सामेथासोन, कम्युनिटी ट्रांसमिशन , कम्युनिटी स्प्रेड। और एक हिंदी साहित्य है जिसे शब्द नहीं मिल रहे हैं।

— धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

ना घर का ना घाट का(हास्य व्यंग)

धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का,यह  लोकोक्ती बहुत प्रसिद्ध है ।धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का , लेकिन इसमें कुत्ता  जैसा वफादार जीव को क्यों घसीटा जाता है। वह निर्दोष जीव है । एक बार एक कुत्ता धोबी के घर भूखा था|
भोजन के लिए कोहराम मचा रखा था  फिर जब समय अधिक हो गया तो पटा तुराकर, धोबी के घाट की ओर दौड़ पड़ा लेकिन तब तक धोबी कपड़ा धो कर वहां से वापस चल दिया था| जब कुत्ता वहां पहुंचा तो धोबी  वहां नहीं था । फिर कुत्ता बेचारा पछताने लगा।  अब उसे कौन समझाए नाहक रस्सी  तुड़ा दी तभी एक दूसरा कुत्ता आया और वह जोर- जोर से भौंकने लगा । एक नेता वहां से गुजर रहे थे| उन्होंने कुत्ते की भाषा समझ ली और उनके अलावा कोई नहीं समझ सकता था । वह कहने लगे धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का| कुत्ता सुना तो उसे वे अपना हितेषी लगे और  फिर क्या; कुत्ता, नेता जी के चार चक्कर लगाया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया फिर उनके पैर चाटने लगा| मानो इसका ,इनके साथ कई जन्मों से नाता है । वह कुत्ता बेचारा अपने किए पर पछता रहा था फिर भी वह नेताजी के साथ गुलेटिया मारने लगा| नेता जी समझ गए , यह वफादार देशी कुत्ता है । रोटी देंगे तो भौंकेगा नहीं। बल्की हमारा टलवा चाटेगा और हमारी सेवा भी करेगा ।उन्हें कुत्ते से परम ज्ञान प्रात हुआ। फिर  कई कुत्तों को रोटी फेंका और वे सभी उनके वफादार हो गए । उन्होंने कुत्ते का गुण राजनीति में भी प्रयोग किया और इसका शत-प्रतिशत परिणाम पाया फिर क्या था, देखते – देखते  बड़े नेता बन गए फिर मंत्री।  उन्होंने अभी तक कुत्ते को ही अपना राजनीतिक गुरु मान रखा है| कहते हैं कुत्ता वफादार जीव है ।मेरे अंदर कुत्ते के सभी गुण बृजमान है। जहां बैठते हैं,  सफाई कर बैठते हैं| मतलब अपने दुश्मनों और विरोधियों का सफाया कर देते हैं फिर भी चौकाना रहते हैं। अगर कोई रोटी देने के लिए बुलाता है दौड़ पड़ते हैं। सोते हुए भी पेट का ख्याल रखते हैं| जब कोई अजनबी आता है तो लड़ते हैं फिर जान पहचान कर लेते हैं। अपने से बड़े नेता के आगे चापलूसी करने में पीछे नहीं रहते हैं|

इसी से उनका जीवन प्रशस्त है| उनके इलाके में कोई घुस आए तो चिल्लाने लगते हैं| कुत्ते  कम ही सोते  हैं वैसे नेता जी भी कम ही सोते हैं।

वह हमेशा अपने गुणों की तुलना कुत्ते से करते हैं| वही उनका गुरु है। कुत्ता भी धन्य  है ऐसा चेला पाकर| कई कुत्तों का पूर्व जन्म का फल है जो आज सुंदरीयों के गोद में खेलते हैं युवा बेचारे तरस जाते हैं उनकी गोद में बैठने को| और वे कुकुरें प्यार से बिस्किट खाते हैं| वे तो लाखों में बिकते हैं|  कभी- कभी चार- पाँच साल पर इनका सिजन आता है।  ये एयर कन्डीशन-वाईफाई और हाईफाई रिजाॅर्ट मे कभी -कभी लाॅक हो जाते हैं। एक दूध देने वाली गाय की जितनी सेवा नहीं होती उतना इन कुत्तों की होती है| फिर भी किसी को कुत्ता कह दो वह भरक जाएगा| कुत्ते सुबह-शाम पार्क में टहलते हैं| ब्रांडेड साबुन से नहाते हैं| और तौलिए से शरीर को पुछवाते हैं| और आम आदमी अपने फटे चिथड़े को भी सिला नहीं पाता| अब कुत्ते , कुत्ते नहीं रह गए हैं मनसे रईस हो  गए हैं| पहले के कुत्ते ज्यादा लालची थे| कभी-कभी कुत्तों को भी डरना पड़ता है| असली नायक किसी को नहीं छोड़ता,  मौका मिलते ही काट भी लेता है और चिल्लाता है , कुत्ते -कमीने मैं तेरा खून पी जाऊंगा| कभी-कभी इन कुत्तों को नाच देखने का भी मौका मिलता है| तब  संस्कृति -परंपरावादी व्यक्ति चिलाता है ।बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना| कुत्ते मंद मुस्कुराते हैं- सोचतें हैं यह इम्पाॅसिबल है ।हम टेरीबल है।आजकल के कुत्ते  रोटी – चावल कम खाते हैं ।रईस हो गए हैं| अब पुकारने पर भी नहीं आते| उन्हें मालूम है रोटी आप खिलाएंगे ।अगर चिकन होता तो आप बुलाते नहीं| अब कुत्ते, कुत्ते नहीं रह गए हैं| कुछ फिल्मों में काम करने लगे हैं ,कुछ राजनीति में !

—– धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

वर्चुअल मंच(हास्य व्यंग)

नेता हैरान हैं, कोरोना ऐसा महामारी आया कि उन्हें मारा- मारी , लात- घुसा मारने को नहीं मिल रहा है ।जनता जो नेता जी पर चप्पल उछालती थी। उसे भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हो रहा है । वह अपना एंड्राॅयड मोबाइल पर प्रहार नहीं कर सकता है । वह लाचार है। वर्चुअल डिबेट मे मजा नहीं आ रहा है। एंकर हैरान हैं।

वे डिबेट में गरमा गरम बहस नहीं कर पा रहे हैं । अगर इस वर्चुअल डिबेट में एंकर इधर चिल्लाया , बंदा कान से लीड निकालकर उधर क्या पता पानी पुड़ी खाने चला जाए। अगर उसके ऑफिस में हो तो हाथ जोड़ कर , पैर पकड़ कर विनती किया जा सकता है । वर्चुअल कवि सम्मेलन हो रहा है। दर्शक वाह – वाह यहां बोल नहीं रहे हैं, टाइप कर रहें हैं। हंस नही रहे हैं बल्कि अपनी भावनाओं को शब्दो में व्यक्त कर रहे हैं – हा -हा। पिछले दिनों देश के एक बड़े नेता जी का वर्चुअल रैली हुआ । उन्होंने बताया यह चुनाव का आगाज है । और उधर विरोधी दल के नेता थालीपीट कर विरोध जताते रहे । यह वर्चुअल रैली का पहला विरोध का अजीब तरीका था। लोग कहतें है- लोहा , लोहा को काटता है। होना भी यही चाहिए था कि वर्चुअल रैली का विरोध वर्चुअल तरीके से होता।सारी दुनिया देखती ,उन्हें भी नया आडिया मिलता । कवि काल्पनिक लोक मे जीता है ।वह अकसर चाँद-तोड़ने कि बात करता है।अब वह चाँद पर वर्चुअल प्रेम का झण्डा गाड़ सकता है और वर्चुअल तारे तोड़कर वर्चुअल तरीके से प्रेयसी को दे सकता है। जमाना बदला है लेकिन दिल के जज्बातों के शब्द नहीं बदले। सुनने देखने का माध्यम बदला है । कहा जाता है, शब्द ब्रम्हा है। वह कभी नष्ट नहीं होता है। चाहे नेताजी वर्चुअल रैली में दूसरे नेता को गाली दे या यथार्थ मे ।असर उतना ही होता है ।कहीं ज्यादा होगा, उसे आसानी से फैलाया जा सकता है। वर्चुअल रैली में इंटरनेट की समस्या आ रही है ।

वक्ता बोल रहें हैं और उधर इंटरनेट गायब। तब नेताजी का मूड ऑफ हो जाता है। जो गर्मी आ गया था शरीर मे अचानक गायब हो जाता है इधर दर्शक दिल थाम के बैठे हैं। उनकी नजर मोबाइल ,लैपटॉप स्क्रीन पर है। राह देखते -देखते उनकी आंखें दर्द करने लगती है । जब नेताजी मुखातिब होते हैं ,पता चलता है दर्शक का मोबाइल बैठ गया है, अगर बैटरी है तो इंटरनेट की स्पीड नहीं है। नेता जी की बात ऐसा लगता है कि बीच बीच में अटक रहा है। रील खराब है या रियल लाइफ पता ही नहीं चलता।

वर्चुअल रैली से मुद्रा की बचत हो रही है ।नेता जी अपने घर में बैठकर विकास का गीत गा रहें हैं और दर्शक भी बंद कमरे में नाच कर खुश हो रहे हैं। पहले ऐसा वे नहीं कर पा रहे थे। प्रोपेगेंडा अब पेंडिंग नहीं रहता बल्कि वर्चुअल मिटिंग उनके काम के तरीके को बदला है । अब वर्चुअल दुश्मन से डर नहीं लगता। अब वे पहले से खुंखार होकर अपने दुश्मन को ललकारते हैं। पहले घटनास्थल पर कुटाई का डर रहता था । अब नही है। मंच पर आकर कोई विरोध करने वाला भी नहीं है । लेकिन एक चीज की कमी खल रही है ।नेताजी का लल्लो चप्पो करने वाले यहां नहीं है। जिसे सुनकर उन्हें परम आनंद मिलता है। अपना मुंह मियां मिट्ठू तो हर कोई बनता है लेकिन दूसरा कोई गुणों की बखान करे तो बांछे खिल जाती है और हर इंसान यही तो चाहता है।

– धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

मार इस मच्छर को (हास्य व्यंग)


जब सोता हूँ तो ऐसा नहीं है कि मैं करवट नहीं बदलता, बदलता हूँ भाई । पूरे रात बदलता हूँ। लेकिन मच्छरों का योग इसमे अधिक होता है। सुहाने सपने जो देखा तभी एक मच्छर पैरों पर काटा।  उसने  नींद खराब कर दिया,  इतने मच्छर क्यों  पैदा हो गए देश मे ! इतने की नींद हराम कर दिया है । कान के पास आकर गुनगुनाते रहते हैं ।कुमार सानू के नाईन्टी  के गीत गाते होंगे कि हनी सिंह के पाॅप म्यूजिक मुझे नहीं पता। कई बार कानों को घायल कर  उनके गीतों की भाषा समझने की कोशिश की  लेकिन कुछ समझ नहीं आया। कई बार  मच्छरदानी में घुसे मच्छर को  मारने की असफल कोशिश कर चुका हूँ  लेकिन हर बार पलंग से गिरकर अपने ही टांग तोड़ा लिया । बड़े शैतान हैं ये। 

जमाना क्या से क्या  हो गया  अब मच्छरदानी में मच्छर नहीं फंसते , चूहे दानी  में चूहा और साबूदानी में साबुन नही ठहरता। दानी  शब्द की खोज किसने की है भाषा विज्ञानी को  मेरी सलाम। मेरी भी इच्छा हुई कई बार कि दानी बनु लेकिन  मछरदानी, चूहे दानी नहीं। आज कल मास्क दानी लोगो का बहुत फोटू छप रहा है।  दानी से  कई शब्द बन जाता है , शायद आप खोज भी रहें होंगे लेकिन आश्चर्य है, मच्छर कोई दान नहीं करता बल्कि इस  दानी में फंसकर कालकलवित हो जाता है।  

कई दिनों से एक चूहा परेशान कर रहा था ।मालकिन बोली बाजार से एक चूहा दानी लेते आइएगा । बड़ा परेशान कर दिया है।  रात भर देहीया पर   मैराथन मचा रखा है । रजाई में कभी – कभी घूस जाता है ।जब  रजाई वाली बातें सुना तो  मेरा खून खौल उठा।  छोटा जीव और इतनी हिम्मत।  रणबांकुरे की गृहस्वामिनी को एक चुहा परेशान कर रहा है।  तभी मेरा ख्याल उस कहानी  पर चली गई जिसमे शेर , चूहे  को अपने पंजे में दबाकर क्रोध में बोला- मैं तुम्हे  मार डालूंगा, तभी चूहा गिरगिराने लगा- मुझे माफ कर दीजिए जहाँपनाह।  मैं किसी दिन आपका  काम आ जाऊंगा ।  मैं भी यही सोच रहा था जो आज फिर एक चूहा मेरे सामने गिरगिराएगा लेकिन मैं छोडूंगा नही ।  यह अपराध अक्षम्य है ।

जिस घर में मच्छर और चूहा अपना घर बना ले समझना  चाहिए उस घर से शांति दूर चली गई।  काम का सारा गणित बिगड़ जाता है। घर में फूट पड़ जाता है।  कारण है,  बहुओं की  नींद पूरी नहीं होने पर वे  देर से जगेंगी।  इस पर सास  ताना  मारेगी फिर एक दिन सहते- सहते  एकता कपूर के सीरियल की तरह सास- बहू अलग हो जाएंगी।  ये मच्छर, भारतीय एकता के दुश्मन हैं।  सामाजिक बंधन के दुश्मन हैं।  इन्ही मच्छरों के कारण  एकल परिवारों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है । जब-जब डीडीटी का छिड़काव होता है तो मच्छर बादल में घूमने का आनंद लेते हैं मरते नहीं बल्की खुश होकर नाचते हैं । गैस  के साथ हिल मिल गएं हैं , दोस्ती कर लिए हैं । मालूम है कि उन्हें कुछ नहीं होगा । इसमे भी कोई केमिकल लोचा है।

– धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

चाईना माल(हास्य व्यंग)

जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए रोजमर्रा की चीजों को खरीदते हैं , खरीदते ही नहीं बेंचते भी हैं।  बेंचते क्या है। वह जो बिक जाए , हां जो बिक जाय।  मतलब आप भी अगर बिक जाए तो आप  भी बिकाऊ माल हैं।  भले  आपका कीमत बहुत ज्यादा हो एक आम आदमी से।  लेकिन आप भी बिकाउं हैं। लेकिन आप मानते नहीं है। आप  जितना ऊंचे  उहदे पर होते हैं,  उतना ज्यादा कीमत  आपकी लगती है। आज हर कोई जनधन खाता से जुड़ना चाहता , क्यों ? क्योंकि इसमें जनता का माल ज्यादा है । आप आसानी से चपट कर सकते हैं । सबको मालूम है आप ऐसे लिंक से जुड़ गए हैं। जिसमे हर रोज जेब गर्म हो रही है। और उस गर्मी से आपको   चिकुनगुनिया भी नहीं होती।  मजे की बात है किसी को पता भी नहीं चलता ।  आप हर रोज बिकते हैं । खरीदने  वाला आपके  पास खुद आता है । कुछ मोलभाव कर कर  खरीद लेता है।  थोड़ी गड़बड़ी होती है,  तो डाँटता है,बेईज्जत  करता है और आप हैं कि  इसे व्यापार का हिस्सा मान लिए हैं।  जब आप इसे एक व्यापार मान लेते हैं तब  बड़े स्तर पर काम करते हैं।  लोग आपको अधिक जानने लगते हैं। आपसे  ऊपर के ओहदे को  भी अब पैसों की हवा लगती है। आप ऊंचे दामों में बिकते हैं।  कोई कहता है मैं बिकता नही हूं। मतलब उसे खरीदार मिले ही नहीं। खरीदार मिले  तो दुनिया में बहुत बिकाऊ माल है लेकिन आदमी जैसा बिकाऊ  माल कोई नहीं है ।यह अपनी हिफाजत खुद करता है। 

आलू ,प्याज, बैगन ,टमाटर ,भिंडी के अलावा बहुत सारे सब्जियां  बिकती हैं। कभी  ऊंचे दाम पर,  कभी निम्न दाम पर और यहां भी मानव ही खरीदता है । भला निर्जीव चीजों को अपना कीमत क्या पता । कीमत हम ही लगाते हैं । हम बिकते हैं कभी दालों के जमाखोरी पर,  कभी प्याज की जमाखोरी कर के। कुछ लोगों का  बिकना ऐतिहासिक होता है ।उसे इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया जाता है ।आम आदमी का कुर्ता तक नही बिकता वहीं बड़ी हस्ती का कच्छा तक बिक जाता है। किसी का कोट ,किसी का चश्मा।  सबसे अधिक चाइना माल में बिकने की क्षमता होती है । वह जैसे तैसे – औने पौने दाम में बिक  कर ही दम लेगा। लेकिन कब तक टिकेगा उसकी जीवनी का प्रोफाईल नहीं बना है ।कब काल  कलवित होगा और चाहने वाले को रुला कर चला जाएगा कहा नहीं जा सकता।
अंत में यह कह कर संतोष होना पड़ता है कि चलो यार चाइना माल था। लेकिन दुनिया को घोर आश्चर्य  तब हुआ जब कोरोना चाइना माल टिकाऊ  हो गया। वहीं इसके जाने का कोई निश्चित तिथि नहीं है ।

धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल

कोरोना देव पधारें स्वर्गलोक से(हास्य व्यंग)


जब भारत में गो बैक कोरोना, मोमबती जलाने और ताली- थाली पीटने से कोरोना नही भागा तब मंत्रीगण गंभीर हो गए। एक निश्चित दिन सभा के आयोजन की तारीख , गोवा से हॉट कैलेंडर मंगवा कर देखा गया। शुभ  दिन आया शुक्ल पक्ष में 13 दिन अंधार जाने पर सूर्य देव के आसमान में 45 डिग्री ताप के रहने पर 25 तारीख को। महाराज का आगमन हुआ सभी चेले- चपाटीयों ने  उच्च ध्वनि विस्तारक यंत्र से  जय जयकार लगाया , महाराज की जय । महाराज ने इशारा किया सभी मंत्रीगण आसन पर बैठ गए । थोड़ी देर बाद एक गंभीर और मोटा आदमी खड़ा हुआ। देख कर ऐसा लगता ,  अगर उस पर कोई मुसीबत फेंकी जाए तो वह अपने पेट से ही रोक लेगा।   वह बोला – महाराज कोरोना राक्षस हमारे जनता को निगल रहा है । इसका अत्याचार रोका नहीं गया तो हमारे परिवार नियोजन के सभी योजना धरे के धरे रह जाएंगे ।  आप  परिवार नियोजन के  पोस्टर पर नजर आएंगे और तब  हमे अपने विकास की गाथा ,विकास रथ से प्रचार करना पड़ेगा। इधर भोंपा से मधुर संगीत सुनाई दे रहा था, दिल ढुढ़ता है फुर्सत के रात दिन । गीत सुनकर मन वाह कि जगह आह भर रहा था-नही चाहिए अब फुर्सत के रात-दिन। कैसा समय आ गया,  दिल था जो मानता ही नही था अब मान गया है।  कोरोना से दिल के मरीज का भी पता चला है। जो आशिक बेचैनी ,बेकरारी, तन्हाई से नही डरते थे वो कोरोना से डर रहें हैं। दिल का आलम सभी का एक ही जैसा है। ऐसा पहली बार हुआ है जब सामने वाले से पुछने वाले का हाल मिला है। लेकीन कोरोना का स्टेटस किसी का किसी  देश से नही मिल रहा है।ईधर  महाराज गंभीर  मुद्रा को तोड़कर फिर गंभीर हो गएं, फिर बोलें – इसे रोकने का क्या उपाय है।  सभा में उपस्थित राजगुरु ने कहा –  हमारे देश में पहले से ऐसे कई बीमारीयों का प्रकोप हुआ है ।  कुछ राक्षसों ने मानव को परेशान किया है तब उस समय यंज्ञ करने से  सभी संकटों का समाधान हो जाता था। देवता गण हमारी रक्षा करते थे। महाराज  खुश होकर बोले- तब ऐसा ही हो।  नारद जी  पृथ्वी पर भ्रमण के लिए आए तो देखा ,  हर घर में हवन हो रहा है । वे  भागे- भागे  इंद्रदेव के पास गए और  कान भर  दिए  नारायण – नारायण एक गरीबी से उठकर राजा बना मनुष्य अपनी प्रसिद्धि और इंद्रलोक के लिए यज्ञ कर रहा रहा है । अगर उसे रोका नहीं गया तो आपकी लोक  भी जीत  लेगा  और जनता सहस्त्र समर्थन कर देगी। यह सुनकर इंद्रदेव क्रुध हुए । उन्होंने मेघ देवता से बारिस बरसाने को कहा।  सभी हवन कुंड पानी में बह गए। चारो तरफ जल ही जल। जल ही जीवन है कि जगह जल ही प्रलय हो गया।  देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कहा – मानव  कोरोना  के समाधान के लिए यज्ञ  कर रहा है ,मूर्ख! तब तक सड़को पर नाव चल रही थी।   सभी देव विष्णु भगवान के पास गए उन्होंने अपने शक्ति से कोरोना देव को निर्मित किया ।  कोरोना देव घेंघे की सवारी कर स्वर्ग लोक से प्रस्थान कर दिएं है। आशा है नया साल तक जरूर पहुँच जाएंगे।

 – धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल