
भाव एक शब्द जिसमें दो अक्षर हैं । भा और व ।लेकिन हैं बड़े काबिल ।अक्सर लोग दूसरे पर व्यंग छोड़ते रहते हैं ।बड़ा भाव खा रहा है । अरे मेरा कहना मान ले तब सामने वाला मंद- मंद मुस्कुरा देता है ।वह कहे तो क्या कहे, क्या पता सामने वाला मेरे भाव का गलत भाव ना निकाल ले । सबसे ज्यादा इसका उपयोग होता है -दिलजलों में ।बड़ी भाव खा रही हो ,कभी मेरी भी सुन लो । फिर सजनी मंद -मंद मुस्कुरा कर तिरछी नजर से देख कर हंस देती है। और रफूचक्कर हो जाती है ।फिर दीवाने दिल में गुदगुदी होती है। चेहरे पर हल्की मुस्कान आती है ।आजकल प्याज का भाव इतना बढ़ गया है कि बिना काटे की आंखों से आंसू आ रहा है।
भाव का अपना प्रभाव है ।जहां है वहीं अपने भाव में ध्यान मग्न है। उसका जीवन संत महात्माओं की तरह मालूम होता है। उसका चित्त निर्मल है । वह दृढ़ रहता है ।विचलित नहीं होता है ।चाहे कोई गाल फुलाए या पेट ।ऑफिस के बाहर सभी एक ही प्रकार के जीव होते हैं ।अंदर सीनियर -जूनियर हो जाते हैं ।सीनियर भाव खाने लगता है ।जूनियर पर रौब झाड़ने लगता है। सरकारी बाबू चपरासी पर प्रभाव दिखाता है। पान सुपारी फ्री में खाता रहता है ।अगर कभी बेचारा गलती से ज्यादा चुना लगा देता है । तो भी डांट सुनता है ।बहुत चापलूसी करते हो तुम ।और तो और ,उसके सहकर्मी व्यंग करते हैं ।बहुत तेल लगाते हो लेकिन ना लगाओ तो अफसर बिफड़ता है ।भाव सबको चाहिए ।अभाव किसी को नहीं। लेकिन भाव कोई देना नहीं चाहता ।पिछले दिनों एक बीयर बार का श्रीगणेश के लिए नेताजी के पास आमंत्रण आया। लेकिन वे देर से पहुंचे । चापलूस मीडिया ने जब कैमरा घुमाया तो बोले- गांव में तीर्थ यात्रा पर गए थे ।जनता हमारे लिए देवता से कम नहीं है।और जनता कह रही है नेता जी के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं, चुनाव के बाद से । यही उच्च कोटि का भक्ति है ।जहां इंसान दूसरों को देवता मान लेता है और एक- दूसरे के दर्शन को लालायित रहता है ।जब नेता जी के ऑफिस जाओ तो पता चलता है कि नेता जी दिल्ली चले गए हैं ।और जब नेता जी गांव आते हैं तो किसान खेतों में चले गए हैं। यह सिलसिला दिन से महीना , महीना से वर्षो तक चलता है । फिर यही बिछड़ने का दर्द चुनाव में खुशी बनती है। जनता फूल- मालाओं से स्वागत करती है । भूतपूर्व नेता ने उनके आने से पूर्व ही फिता काट दिया ।तो अपने सम्मान के लिए लड़ने लगे। उनके चेला चपाटी कई कुर्सी तोड़ दिए। और बोतल उठा ले गए ,अपने देवता को चढ़ाने के लिए। सालियाँ ज्यादा भाव खाती हैं। सबसे अधिक उनको भाव का अभाव रहता है। जितना दो उतना कम रहता है ।उनको कभी लूज मोशन नहीं होता है ।वह कितना भी भाव खा ले संतुष्ट नहीं रहती हैं ।देश जैसे -जैसे तरक्की कर रहा है। लोगों का भाव बढ़ रहा है। वह दिन दूर नहीं जब भाव बाजार में बिकने लगे ।कभी-कभी एक बंदा के पीछे कई बंदे लगे रहते हैं ,उपकार करना चाहते हैं कि उसका दोस्त जो 2 बार फेल हुआ है।और हर बार उसका परसेंटेज मल्टीपल में कम हुआ है ।रुक जाए लेकिन दोस्त है कि भाव खा रहा है अकेले मजा ले रहा है। घर में पत्नी भाव खाती है और हर काम के लिए निहोरा कराई जाती है ।बच्चे का डाइपर पापा बदल रहे हैं ।पति महोदय सफाई अभियान में कभी-कभी संगिनी का साथ देते हैं। जमाना बदल गया है। बिना ताव के दाल भी नहीं गल रही है ।वह भी भाव खा रही है।
—धर्मेन्द्र कुमार निराला निर्मल
बहुत खूब धर्मेंद्र जी। बहुत समय के बाद व्यंग्य से रूबरू कराया आपने 🙏
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हार्दिक आभार जी। ऐसे ही हौसला बढ़ाते रहें ।
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बहुत खूब। 🤗😍
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आपके प्रतिक्रिया के लिए कृतज्ञ हूँ ।
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