पथिक !
तू अभी से थककर बैठ जाना चाहता है
और यात्रा है अनंत
जीवन और मौत की दुरियां
नाप नही सकते ये सफर
कौन जानता है
कब से चल पड़ा है यह सफर
और कहाँ खत्म है
निरंतर काटते हुए सफर
कट जाती है जिंदगियाँ
कितने मिले और बिछुड़े
राहो मे हम सफर
अलापते गये सब
जीवन और मरण का राग
चलते चलते इन राहों मे
बिछ गई हजार जिंदगियाँ
भरती हुई सिसकियाँ
दौरती हैं हवाएँ हर पल
मौन-नि:शब्द है सडक
जमाने भर का गम छिपाये
नियती हावी है सब पर
हम सब गतिमान है निरंतर
किसी मशीनी कल-पुरजे की तरह !
———— बैधनाथ उपाध्याय